जाने की जल्दी में…
जाने की जल्दी में लोग
अक्सर भूल जाते हैं
सब-कुछ कहाँ,ठीक से बंद कर पाते हैं
कभी कोई खिड़की उम्मीद की
तो कभी कोई दरवाज़ा इंतज़ार का
जरा सा खुला छोड़ ही जाते हैं ।

एक सिर्फ हम ही मय को
आंखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में
मयखाने हजारों है,
एक तुम ही नहीं तन्हा
उल्फत में मेरी रुसवां
इस शहर में तुम जैसे
दीवाने हजारों है,
इन आंखों की मस्ती के
मस्ताने हजारों हैं
इन आंखों से बावस्ता
अफसाने हजारों है 😍🍺🥃
यहां की आप चिंता मत करो भाभी, मैं सब देख लूंगी… आप बेफिक्र होकर जाओ। अगर कोई और मदद आपको चाहिये होगी तो आप बस एक फोन कर देना। मैं मैनेज कर दूंगी” नंदनी की पड़ोस वाली भाभी सीमा की बात सुनकर उसे तसल्ली हुयी और उसने तिरछी नज़रों से अपने पति विनय को देखा और आंखों ही आंखों में कह दिया कि आप जिसे हमेशा पराया कहते थे आज वही अपनों से भी ज्यादा अपने निकले।
नंदनी ने अपनी दोनों बेटियों को प्यार किया और सीमा के सुपुर्द करके अपने मायके चली गयी। नंदनी की बेटियों के बोर्ड एग्ज़ाम पास होने से उन्हें वो अपने साथ नहीं ले जा सकती थी।
वैसे शहर में अपने लोग कहने वालों में नंदनी की ननद कंचन भी रहती है जो हमेशा तीज-त्यौहार पर अपना हक़ लेने बराबर आ जाती है और खुद अपने घर में जरुरत हो तो नंदनी को आदेश देकर अपने यहां बुला लेती है। लेकिन आज जब नंदनी ने अपनी बेटियों के साथ कुछ दिन रुकने के लिए बुलाया तो उसने साफ इंकार कर दिया कि उसकी सास ने मना किया है क्योंकि उसकी ननद आ रही है और उसकी सासूजी को पसंद नहीं कि भाभी के रहते हुए उनकी बेटी घर में काम करे।
नंदनी अपने मम्मी-पापा की इकलौती बेटी है। उसकी शादी के बाद वो लोग अकेले हो गए लेकिन उसके दोनों चाचा-चाची वही साथ में ही रहते थे तो नंदनी मम्मी-पापा की तरफ से चिंतामुक्त थी। लेकिन सुबह खबर आयी कि पापाजी सीढ़ियों से फिसल गए। चोट ज्यादा लग गयी है डॉक्टर ने 24 घंटे का समय दिया है। इसलिये नंदनी के चाचा ने फोन करके नंदनी को तुरंत बुलाया। नंदनी की एक बेटी 10th में और एक 12th में है, इसलिए वो चाहती थी कि कंचन आकर कुछ दिन बेटियों के साथ रह जाए।
नंदनी का स्वभाव ऐसा है कि वो कभी भी किसी की तकलीफ सुन-देख नहीं पाती। इसलिए जैसे ही सोसाइटी में किसी की भी तकलीफ या परेशानी सुनती तो तुरंत उसकी मदद के लिए पहुंच जाती फिर वो खाना बनाकर देना हो, साथ में अस्पताल जाना हो या किसी की शॉपिंग करवानी हो। जहां तक हो सकता नंदनी सबकी मदद करने के लिए हमेशा आगे रहती। उसकी इस आदत से विनय बहुत चिढ़ता और ये सब करने के लिए मना करता। तब नंदनी हंसते हुए विनय से कहती,”शुक्र मनाइए मेरी इसी आदत की वजह से आपकी बहन को बहुत आराम है वरना वो किसे बुलाती। मुझें पता है कि कल को अगर मुझे मदद की जरुरत पड़ी तो यही पराये लोग अपने बन जाएंगे।”
“मदद? लेकिन इन परायों की मदद हमें क्यों पड़ेगी? तुम भूल रही हो कि मेरी अपनी सगी बहन और जीजाजी यही इसी शहर में रहते है। जब जरुरत होगी तुरंत आ जाएंगे” विनय बहुत ही तन कर बोलता था।
विनय की बात सुनकर नंदनी बस मुस्कुरा देती और मन ही मन कहती,”पतिदेव! अभी आप अपनी बहना को समझ ही नहीं पाए है। वो सिर्फ मतलब की रिश्तेदार है। जो अपने घर की जिम्मेदारी खुद नहीं उठा सकती, आए दिन मुझे बुलाती है वो आपकी मदद करेगी… कभी नहीं।”
और आज विनय का सिर शर्म से झुका हुआ था। उसने जब बेटियों को संभालने के लिए कहा तो अपना ही रोना लेकर बैठ गयी और वही जैसे ही सीमा को पता चला तो तुरंत घर आ गयी कि बेफिक्र होकर जाईये हम लोग देख लेंगे। सच में कभी-कभी अपने खून के रिश्तों से बढ़कर होते है यह परायों के अपनेपन के रिश्ते…
क्या आपके पास है ऐसे रिश्ते जिनसे आपका खून का रिश्ता नहीं है लेकिन फिर भी आपको अपनेपन का अहसास कराते है।

किरायेदार-“कमरा खाली है?”
मकान मालकिन -“हां!आइये देख लीजिए।”
मकान मालकिन – “आप क्या करते हैं?”
किरायेदार – “अध्यापक हूं।”
मकान मालकिन- “आपकी जाति क्या है?”
किरायेदार -“चमार”
मकान मालकिन –“हम हरिजन लोगों को कमरा नहीं देते हैं।”
आज आजमगढ़ में कमरा ढूंढ़ने निकला और इस तरीके के वाहियात अनुभवों से गुजरना पड़ा जिसका तनिक भी आभास मुझे नहीं था। सबकी तरह मुझे भी लग रहा था सबकुछ बदल गया है।
जिनको लगता है सबकुछ बदल गया है,वे हमारी जगह खड़ा होकर देखें। ये जानने के बाद कि मैं अध्यापक हूं तब भी इस तरीके का अमानवीय व्यवहार किया गया।
एक जगह नहीं कई जगहों पर इस तरीके से अपमानित होना पड़ा है। मुझे चक्कर आने लगा। तीन - चार कमरे देखने के बाद मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं और कमरे देखूं।
जैसे लग रहा था शरीर में जान ही नहीं है। ये लोग अछूत जानकर भेदभाव भी करते हैं और हरिजन भी कहते हैं। इस तरह ये सम्मान देने की कोशिश करते हैं। जा रे जमाना....
जिनको लगता है आर्थिक रूप से मजबूत हो जाने के बाद सारे भेदभाव खत्म हो जाएंगे। मुझे वे लोग बड़े भोले लगते हैं। कुछ दिन पहले कुछ साथियों से इसी विषय पर चर्चा हो रही थी।
उनका भी कहना था आर्थिक मजबूती सारे भेदभाव खत्म कर देगी। लेकिन मैं स्पष्ट रूप से कह रहा हूं। इस देश में Dr Ambedkar को अपमानित होना पड़ा।
उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़ी। लेकिन परिस्थितियां गाहे - बगाहे आज भी बरकरार हैं। कुछ लोग होंगे अच्छे इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन अधिकतर परिस्थितियां जातिवादी, सामंतवादी, पितृसत्तावादी ही हैं।
आजादी के इतने दिनों बाद जब एक अध्यापक के साथ इस तरीके का व्यवहार किया जा रहा है तो आम जनमानस का क्या हाल होगा? इस विषय पर लोग बात ही नहीं करना चाहते हैं।
आज भी छुआछूत बरकरार है, लेकिन उसका रूप बदल गया है। अपने गिलास में पानी पिलाया जायेगा, लेकिन बाहर निकाली गई गिलास में। इस बजबजाते, कुंठित, बीमार समाज व्यवस्था से घिन्न आने लगी है।