परिवार

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    परिवार *

    इस तरह हमारी मुलाकात अक्सर होती थी। या यूं कहें कि सप्ताह में दो-तीन बार होती थी। मेरा काम मार्केटिंग का था इसलिए अक्सर मैं रात को लेट आता था। पत्नी भी इन चीजों की आदी हो चुकी थी इसलिए उनींदी आकर दरवाजा खोलती थी और फिर कमरे में जाकर सो जाती थी। आखिर उसे सुबह जल्दी भी उठना होता था। बच्चों को स्कूल भेजना, घर के काम, बाजार के काम, ऐसे बहुत से काम होते थे उसके पास।

    पर आज मुझे नींद नहीं आ रही थी। आज मां की याद आ रही थी, जो अभी सात महीने पहले ही स्वर्ग सिधारी थी। जब तक मां थी, दरवाजा मां ही खोलती थी। बहु को उन्होंने कभी इसके लिए परेशान नहीं किया।

    बड़ी सीधी थी मेरी मां। कम में भी खुश रहती थी। पर मां की अपनी खासियत थी। मैं जब भी लेट आता था तो वो ही उठकर दरवाजा खोलती थी। और वो ये इंतजार नहीं करती थी कि मैं अंदर आकर दरवाज़ा खुद बंद करूंगा। जब तक मैं अंदर ना आ जाता, दरवाजे पर ही खड़ी रहती। मेरे अंदर आने के बाद दरवाजा भी वो खुद ही बंद करती थी। और फिर ये जरूर पूछती थी,

    काफी लंबे टूर के बाद उस दिन सुबह 4:00 बजे मैं घर पहुंचा। जाकर दरवाजा नाॅक किया तो पत्नी ने उनींदी हालत में आकर दरवाजा खोला। और मेरे अंदर प्रवेश किए बिना ही पलट कर अंदर चली गई। मुझे चाय की तलब थी। उससे ये कहना था। पर कह नहीं पाया क्योंकि वो सोने जा चुकी थी। मैंने दरवाजा बंद किया और अंदर कमरे में आकर अपना सामान एक तरफ रख कपड़े चेंज किये और पलंग पर लेट गया।

    खुद से रसोई में जाकर चाय बनाने की इच्छा नहीं हुई। पत्नी बच्चों के साथ जाकर सो गई। ना उसने मुझे कुछ पूछा और ना ही मैंने कुछ कहा।

    ” रवि थक गया क्या? चाय पिएगा?”

    कभी-कभी मैं ना कह देता था। पर कभी-कभी जब हां कहता था तो वो बहु को आवाज नहीं देती। बल्कि खुद रसोई में जाकर मेरे लिए चाय जरूर बना कर लाती थी।

    जब तक मैं चाय पी रहा होता था तब तक वो मेरे पास ही बैठी होती थी। कहती कुछ भी नहीं थी। बस चुपचाप बैठी होती थी‌। चाय पीकर मैं कप टेबल पर रखता था और अपने कमरे में आकर सो जाता था। वो भी अपने कमरे में जाकर सो जाती थी। बस ऐसी ही हमारी मुलाकात होती थी।

    पिताजी थे नहीं। मां ने ही मेरी परवरिश की थी। बचपन में मैं उससे बहुत बातें करता था और वो मेरी हर बात सुनती थी। पर शादी के बाद ये सब कम होता गया। और जैसे-जैसे वक्त बढ़ता गया, हमारी मुलाकात मौन ही होती थी। समय के अभाव में या यूं कहे कि शादी के बाद अपनी पत्नी पर उसकी जिम्मेदारी डाल मैं बेफिक्र हो चुका था। इसलिए कभी उसे वक्त नहीं दे पाया।
    आज भी मुझे याद है। कई बार वो मुझसे बोलती रहती थी। पर मैं उसे ‘हां’ और ‘हूं’ में जवाब देता रहता था। शायद मैं उसकी बात सुनता भी नहीं था। पर फिर भी वो खुशी-खुशी मुझसे बातें करती थी। ये अलग बात है कि मुझे तो ये भी याद नहीं कि मैंने आखरी बार उससे जी भर के कब बात की थी। पैसा कमाने की दौड़ में मैं उसे काफी पीछे छोड़ चुका था।

    जब वो बीमार हुई थी, तब भी मैं उसके साथ नहीं था। मैंने पत्नी को पैसे देकर अपनी जिम्मेदारी उसे दे दी थी। पत्नी ही उसे लेकर हाॅस्पिटल दौड़ती थी। वो कई बार कहती भी थी कि कुछ देर मां के साथ तो बिता लो। पर मुझे तो पैसा कमाना होता था। क्योंकि मुझे मार्केट संभालना होता था। आखिर सरवाइव करने के लिए कमाई भी जरूरी है। परिवार को पालने के लिए पैसा ही तो चाहिए। बस यही मेरी सोच रही।

    जब वो अपनी अंतिम सांसे गिन रही थी, उस दिन भी मैं उसके पास नहीं था। मैं किसी जरूरी मीटिंग में गया हुआ था। पत्नी ने वीडियो कॉल भी लगाया। शायद मां मुझसे बात करना चाहती थी, मुझे देखना चाहती थी। पर मैंने कॉल रिसीव ही नहीं किया। क्या करता मीटिंग में जो था। मेरी भी अपनी मजबूरी थी। आखिर पैसा और प्रमोशन भी बहुत जरूरी है।

    पर आज मैं ये सब क्यों याद कर रहा हूं। अचानक मां कैसे याद आ रही थी। आज इतने दिनों बाद मैंने ट्रेन से ट्रैवल किया था। नहीं तो मैं बस से या कंपनी की कार से ही ट्रैवल करता हूं।

    हालांकि मेरा रिजर्वेशन था। पर आज मीटिंग इतनी लंबी गई की काफी वक्त लग गया। मैं दौड़ा दौड़ा फिर भी बस स्टैंड तक पहुंचा लेकिन तब तक बस रवाना हो चुकी थी। सोचा कोई दूसरी बस मिल जाएगी पर दुर्भाग्य वश वो भी नहीं मिली।

    तब किसी ने कहा कि कुछ देर बाद रेलवे स्टेशन से ट्रेन रवाना होने वाली है जो आपको आपके गंतव्य तक पहुंचा देगी। बस फिर क्या था। मैंने ऑटो पकड़ा और सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचकर टिकट लिया। अब रिजर्वेशन तो कहां से हो। सो मैंने जनरल में टिकट लिया और धक्का मुक्की के बीच ट्रेन में पहुंच गया।

    पर सबसे बड़ी जीत मेरी तब हुई, जब मुझे खिड़की के पास वाली सीट मिल गई। खिड़की के पास वाली सीट पर बैठकर मैं अपने आप को बड़ा विजेता समझ रहा था। यहां तक कि सीट के पास वाली फर्श को भी मैंने अपना सामान रख कर अपने कब्जे में कर लिया। ताकि आराम से बैठ सकूं। ट्रेन में काफी भीड़ थी। इसलिए उधर ना देख कर मैं खिड़की के बाहर स्टेशन के नजारे देखने लगा।

    तभी अचानक ट्रेन में से ही आवाज आने लगी,

    ” अरे उधर कहां जा रही है? अपने बेटे को संभाल। दिख नहीं रहा तुझे भीड़ है यहां। पता नहीं कैसे-कैसे लोग ट्रेन में सफर करने के लिए चढ़ जाते हैं”

    ” अरे ऐसे बेटे को तो घर पर रखती। कहां लेकर घूम रही है। दिख नहीं रहा है क्या तुझे हम खड़े हुए हैं। खुद के लिए जगह नहीं है, तुझे जगह कहां से दे”

    “नहीं नहीं, मेरे बच्चों के पास बैठाने की जरूरत नहीं है अपने इस बेटे को। इसका क्या भरोसा, मेरे बच्चों को नुकसान पहुंचा दे तो “

    मैं भी जानने की कोशिश करने लगा कि आखिर हो क्या रहा है। तभी भीड़ को चीरती हुई एक चालीस पैंतालीस साल की औरत अपने तेरह चौदह साल के बेटे को गोद में उठाएं वही आ धमकी। देखने में निम्न मध्यम वर्गीय लग रही थी। सस्ती सी कॉटन की साड़ी पहन रखी थी। सिर पर पल्लू ले रखा था। वही वो तेरह चौदह साल का किशोर लड़का जो अपनी पूरी हाइट ले चुका था मंदबुद्धि प्रतीत हो रहा था।

    इतने बड़े बेटे को अपनी गोद में उठाए वो मेरे पास आकर खड़ी हो गई और मुझसे बोली,

    ” भैया जी अगर बुरा ना मानो तो मैं अपने बेटे को यहां नीचे फर्श पर बैठा लूं। कोई भी सीट नहीं दे रहा है। यहां तक कि हमें अपने पास भी खड़े होने नहीं दे रहा है”

    मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा और फिर उसके बेटे की तरफ। लेकिन उसने बोलना जारी रखा,

    ” बस अगले स्टेशन पर ही उतरना है मुझे। इतनी देर कैसे इसे गोद में लेकर खड़ी रहूंगी। इसे फर्श पर बैठा दूंगी तो थोड़ी देर मुझे भी आराम मिल जाएगा। पंद्रह बीस मिनट की बात ही है भैया जी। फिर तो मैं इसे लेकर उतर जाऊंगी “

    पता नहीं क्यों? दिमाग तो ‘हां’ नहीं कर रहा था। पर क्या सोचकर मेरा हाथ अपने आप ही सामान की तरफ चला गया। और मैंने अपना बैग उठाकर गोद में रख लिया। ये देखकर उसने अपने बेटे को वहां फर्श पर बैठा दिया और खुद भी उसके पास फर्श पर ही बैठकर अपनी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे पर आए पसीने को पोंछने लगी।

    तभी उसके बेटे ने उसके कंधे पर अपना सिर रख दिया। ये देखकर उसने उसे दुलार करते हुए कहा,
    ” बस बेटा, थोड़ी देर में पहुंच जाएंगे। मेरा प्यारा बेटा, तब तक चुपचाप बैठेगा”

    उसने भी हां में सिर मिला दिया और अपनी मां की आज्ञा मानकर चुपचाप बैठ गया। मैं दोनों की क्रियाओं को बड़े गौर से देख रहा था। मन में सवाल चल रहे थे कि इतने बड़े बेटे को जो मानसिक तौर पर बीमार है गोद में उठाकर अकेली क्यों घूम रही है? इसके साथ घर का कोई व्यक्ति क्यों नहीं है? ये अकेली कैसे संभालती होगी इसे?

    तभी उस औरत के निगाह मुझसे टकराई। जिससे मैं झेंप गया। मेरे मन में चल रहे सवालों को समझ कर उसने कहा,
    ” ये मेरा बेटा है भैया जी। थोड़ा बीमार है। पर किसी को परेशान नहीं करता। पर फिर भी पता नहीं क्यों लोग इसको देखकर डरते हैं। कहते हैं कि यह मंदबुद्धि है। इसे अपने पास भी नहीं बिठाते”

    “तुम इसका इलाज क्यों नहीं कराती हो?”
    अचानक मेरे मुंह से निकल गया।

    “इतना पैसा कहां है भैया जी। हम तो रोज कमाते हैं तो खाते हैं। हमारे पास इलाज कराने के पैसे कहां”
    ” तो तुम्हारे साथ परिवार का कोई सदस्य क्यों नहीं है। इसे तुम अकेले ही संभाल रही हो”
    पता नहीं क्यों मैं भी सवाल पर सवाल किया जा रहा था।

    ” भैया जी कहने को तो पूरा परिवार है। सास, जेठ जेठानी, उनके बच्चे, पति सब है। पर इसकी देखभाल के लिए कोई नहीं। शादी के पूरे दस साल बाद हुआ था ये। वो दस साल मैंने कैसे निकाले थे मेरा जी ही जानता है। बांझ बोल बोल कर दुनिया भर के ताने मारे थे उन लोगों ने। जीना मुहाल कर रखा था मेरा। पर मेरा पति मेरे साथ था। मंदिर मंदिर भटकी थी मैं एक औलाद के लिए। तब जाकर इसका चेहरा देखना नसीब हुआ था मुझे। पर जब घर वालों को ये पता चला कि मेरा बेटा…”
    बोलते बोलते वो चुप हो गई। आंखों में आंसू आ गए। अपने पल्लू से अपने आंसू को पोंछते हुए बोली,

    ” अनाथ आश्रम छोड़कर आने के लिए कह दिया था उन्होंने। इस बार तो पति ने भी साथ दिया उनका। पर ऐसे कैसे अनाथ आश्रम छोड़ देता भैया जी? आखिर इसे जन्म दिया है मैंने। ये तो भगवान का प्रसाद था मेरे पास, जिसने मुझे मां होने का सौभाग्य दिया था। बस लड़ पड़ी मैं भी उन लोगों से। अब कोई कुछ नहीं कहता मुझे। पर हां, इसकी देखभाल कोई नहीं करता। मैं इसे अपने साथ ही फैक्ट्री ले जाती हूं और अपने साथ ही वापस ले आती हूं। ये किसी को परेशान नहीं करता इसलिए फैक्ट्री वालों ने भी मना नहीं किया इसे लाने के लिए “

    “इतनी हिम्मत कहां से आ जाती है तुम में? देख रहा था कि तुम ही इसे गोद में उठा कर ला रही थी। परेशानी नहीं होती तुम्हें?”
    ” मां हूं भैया जी। अपने बच्चों के लिए तो दुनिया से लड़ जाऊं। आप तो हिम्मत की ही बात कर रहे हो। एक मां अपने बच्चों के लिए क्या नहीं कर सकती। बच्चे अपनी मां को भूल जाए, पर मां अपने बच्चों को कभी नहीं भूलती”

    उसके शब्दों ने मुझे नींद से जगा दिया। शब्द नहीं थे, एक करारा थप्पड़ था जो सीधे मेरे गाल पर आकर लगा था। मेरी मां ने भी तो मुझे पिताजी के जाने के बाद पाला था। सही तो कह रही थी वो। मैं अपनी मां को भूल गया पर मां अंतिम समय भी मुझे ही याद कर रही थी। काश मैंने उस समय मां से बात कर ली होती, भला दो मिनट में मेरा क्या नुकसान हो जाता। मेरी पत्नी तो एक अच्छी बहू बन गई पर मैं अच्छा बेटा नहीं बन पाया।

    सोचते सोचते मुझे नींद आ गई। सुबह जब उठा तो देख पत्नी रसोई में थी। बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे। जाते हुए वो अपनी मम्मी को बाय करके बाहर जाने लगे, तभी मैंने उन दोनों से कहा,
    ” मैं भी तो खड़ा हूं। मुझे बाय क्यों नहीं किया “

    दोनों बच्चे ठिठक कर खड़े रह गए। उन्हें लगा कि मैं उन्हें डाटुंगा। पर मैं उनके पास आया और उन्हें गले लगाते हुए बोला,
    ” चलो, आज मैं तुम्हें स्कूल छोड़कर आता हूं अपनी कार से”

    दोनों हैरानी से एक दूसरे की शक्ल देख रहे थे, पर खुश थे। ये उनके लिए सुखद था और पत्नी के लिए भी। पर मुझे अब समझ में आ गया था कि पैसों के साथ परिवार भी जरूरी है।

    मौलिक व स्वरचित

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