वासना है तुम्हारी नजरों में…तो मै क्या क्या ढकूं
तू ही बता क्या करूं ? कि चैन की जिंदगी जी सकूं।।
साडी पहनती हूं तो तुझे मेरी कमर दिखती है,
चलती हूं तो मेरी लचक पर अंगुली उठती है।।
दुप्पटे को क्या शरीर पर नाप के लगाउ मै।
कैसे अपने शरीर की संरचना को तुमसे छुपाउ मैं…
पीठ दिख जाए तो वो भी “काम” निशानी है।
क्या क्या छुपाउ तुमसे, तुम्हारी तो मेरे हर अंग को देख के बहकती जवानी है।
घाघरा चोली पहनू तो स्तनो पर तुम्हारी नजर टिकती है,
पीछे से मेरे नितंम्बो पर तेरी आंखे सटती है..।।
केश खोल के रखू तो वो भी बेहयाई है।
क्या करे तू भी, तेरी निगाहों मे समायी “काम” परछाई है।।
हाथो को कगंन से ढक लूं..
चेहरे पर घुंघट का परदा रख लूं..
किसी की जागिर हूं दिखाने के लिए अपनी मांग भर लूं..
पर तुम्हे क्या परवाह मैं किसकी बेटी, किसकी पत्नी, किसकी बहन हूं..।।
तुम्हारे लिए तो बस तुम्हारी वासना को मिलने वाला चयन हूं..
सिर से पांव के नख तक को छुपा लूंगी..तो भी कुछ नहीं बदलेगा,
तेरी वासना का भूजंग तो नया बहाना😥 बनकर के हमें डस ही लेगा।।
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((स्त्री श्रंगार ही इसीलिए करती है कि खूबसूरत दिखे और लोग उसकी सराहना और तारीफ करें…. घूरती नज़रों की नज़र और नज़रिए से ही अंदाजा लग जाता है कि पुरूष सम्मान दे रहा है या…..))
स्त्री तो स्त्री है…
क्या मेरे घर की…क्या तेरे घर की..✍️
—यहां बात उनकी हो रही है जो राह चलती हर स्त्री को घूरते और छींटाकशी करते हैं—