संस्कार

संस्कार

एक वो दौर था जब पति भाभी को आवाज़ लगाकर अपने घर आने की खबर पत्नी को देता था,

पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे।

बाऊजी की बातों का ‘हाँ बाऊजी-जी बाऊजी’ के अलावा जवाब नही होता था।

आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया।

ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।

बीवी को तो दूर बड़ो के सामने हम अपने बच्चों तक को नही बतलाते थे।

आज बड़े बैठे रहते है पर सिर्फ बीवी से ही बतियाते है।

दादू के कंधे मानो पोतों-पोतियों के लिए आरक्षित होते थे, काका जी ही भतीजों के दोस्त हुआ करते थे।

आज वही दादू ‘OLD-HOUSE’ की पहचान है, काकाजी बस रिश्तेदारों की सूची का एक नाम है।

बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे।

‘ताऊजी’ आज सिर्फ पहचान रह गए और छोटे के बच्चे पता नही कब जवान हो गया?

दादी जब बिलोना करती थी

बेटों को भले ही छाछ दे पर मक्खन तो वो केवल पोतों में ही बाँटती थी।

दादी के बिलोने ने पोतों की आस छोड़ दी क्योंकि पोतों ने अपनी राह अलग मोड़ दी।

राखी पर बुआजी आते थे, घर मे नही मोहल्ले में फूफाजी को चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।

अब बुआजी बस दादा-दादी के बीमार होने पर आते है, किसी और को उनसे मतलब नही चुपचाप नयननीर बरसाकर वो भी चले जाते है।

शायद मेरे शब्दों का कोई महत्व ना हो पर कोशिश करना इस भीड़ में खुद को पहचान ने की कि हम ज़िंदा है या बस “जी रहे” हैं।

ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।

अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचा दिया, शिक्षा के चक्कर में हमने संस्कारों को ही भुला दिया।

बालक की प्रथम पाठशाला परिवार व पहला शिक्षक उसकी माँ होती थी, आज परिवार ही नही रहे तो पहली शिक्षक का क्या काम?

ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।

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