सांझ की बेला

सांझ की बेला

सांझ की बेला

हमारे समय में सांझ की बेला में भूख लगने पर मैगी नही बनती थी न ही मोमो बर्गर बाजार से आते थे।

हमें तो जब भूख लगती थी तब हमारी मां यूं नून सरसों तेल चुपड कर रोटी गोल करके पकड़ा देती थी और हम लोग घूम घूम कर काट कर खाते रहते थे।

रोटी सुबह की बनी सूखी रहती थी बस उसका स्वाद मां बदल दिया करती थी। रोटी में कभी ताजा मक्खन चुपड़ जाता था, कभी देशी घी लग जाती थी, कभी चीनी रोटी मिल जाती थी तो कभी घी गुड़ रोटी मिल जाती थी।

कभी मकई के दानों का भूजा (पॉपकॉर्न) चटपटे नमक संग मिल जाता था।

ताजा कुटाया चिवड़ा गुड़ एक कटोरी में पकड़ा देती थी।

बरसात होने से कच्ची फर्श नम हो जाती थी उस पर चना, मटर के दाने बिखेर देती थी जो नम भूमि के संपर्क में आकर नर्म हो जाते थे। उनको लोहे की छलनी में रखकर ऊपर से चूल्हे में से जलती उपले की अंगार रखवा लेते थे।

थोड़ी देर छलनी हिला कर दाने अच्छी तरह से भून लेते थे। राख छलनी से नीचे गिर जाती थी और बाकी बचे आग के टुकड़े को इधर उधर करके लहसुन मिर्च की पीसी चटनी संग चबाते थे।

अहा! आनन्द आ जाता था। जब तक भोजन बनकर नही तैयार होता था तब तक हर दिन शाम की हमारी भूख यू ही मिटाई जाती थी।

अब तो मोमो बर्गर और मैगी ने हर जगह अपने पैर पसार लिए हैं। अब की पीढ़ी के हमारे बच्चे इन देशी चीजों के बारे क्या जाने?

लेकिन फिर भी घर में कुछ यूं देशी चटपटी चीज़े बनाया करे और बच्चों को टेस्ट करवाए क्या पता उन्हे भी पसन्द आए और वो मैदे की बनी मैगी खाना कम कर दे।

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