मैं

मैं

मेरी चचेरी बहन ने प्रेमविवाह किया, उस बात को तकरीबन दस साल हो गये. मैं बारहवीं में थी सोच और दिमाग भी उतना ही विकसित हुआ था.

बहुत गर्मजोशी में माई बापू दादा दादी के दुःखी होने पर मैंने अपनी सोच उनके आगे रख दी. उस समय सभी चुप रहे और मैं अपनी जीत और सोच पर खुश.

कुछ दिनों बाद दादी ने बड़े प्यार से कहा, “चींटी बहन की तबीयत ठीक नहीं है, यहाँ पर सभी उसके निर्णय पर खुश नहीं है इसलिए कोई मिलने नहीं जाना चाहता, तुम हो आओ कुछ दिन. सम्भल जाएगी वो.”

मैं खुश खुश निकल पड़ी,वहाँ पहुंची.

छोटा सा 3 कमरों का घर, चार परिवार. बहन के कमरे में एक अलमारी और बाकी बहुत सा सामान भरा हुआ था. मैं कहाँ रहूँ? मुझे छोटी सी बालकनी मिली जहां बर्तन साफ करे जाते थे. सुबह पाँच बजे उठकर जल्दी से नहाना पड़ता, एक बाथरूम और एक दर्जन लोग.

बहन की जिम्मेदारी थी शाम का भोजन बनाना. वो मुझे सोंप दी गयी. बहुत आश्चर्य हुआ. बहन बीमार है तो खाना तो दूसरी बहुएं भी बना सकती थी..

शाम 4 बजे से रसोई में लगती 8 बजे तक खाना बनता. दाल, चावल, दो सब्जी और 40 फुल्के. काम खत्म करते करते दस बज जाते.

कोई सराहना नहीं होती बस कमियाँ ढूंढी जाती खाने में. उस घर के बच्चों के बराबर की थी मैं. बहुत अजीब से लोग थे. वहाँ मुझे पता चला स्त्री सिर्फ एक वो मशीन है जो मर्दों को खुश रखने के लिए होती है.

“दीदी तूने लव marriage की है न?” कुछ नहीं कहा दीदी ने बस आँखों में से आँसू बहते रहे. “मेरे साथ आज कोई नहीं, किससे कहूँ?”

15 दिनों बाद दादी ने वापस बुलाया, तब तक मैं अपनी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण सबक सीख चुकी थी.

,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ग़ज़ल,,,,,,,,,

मुझको ऐसी भी चाहत नहीं चाहिए,,
मांग कर फिर मुहब्बत नहीं चाहिए।।

अब किसी की भी ना मुझको द़रकार है,,
अब किसी से भी उल्फ़त नहीं चाहिए।।

इस मुहब्बत ने भी जख्म़ इतना दिया,,
फिर से इसकी इनायत नहीं चाहिए।।

दर्द देकर नहीं अब दुआ कीजिए,,
आपकी मुझको रहमत नहीं चाहिए।।

आग जिसने लगाई जहां में मेरे,,
,रिचा, उसकी हिमायत नहीं चाहिए।।

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