पीले पत्ते और हमारे बुजुर्ग🍁

55 पार का पुरुष

1.

बाजारवाद के दौर में
खोजता है
चिड़िया के नीड़ भर नभ
भले ही खाली हो जेब
मगर रिश्तों से भरा हो सब
जहां वो स्वतंत्रता से रचा बसा हो
हर भोर खिलखिलाकर हंसा हो

2.

उस पुरुष को पता है
जिम्मेदारियों का बांझपन
बालपन का खालीपन
वो खोजता महल नहीं बस चाहता छत
एक छोटा सा अपनेपन का घर।

3.

इस अधूरेपन का एहसास
जैसे प्रांगण पड़ा पायदान
उससे भलीभांति परिचित है मालिक सा
कुछ अपना कुछ पराया
कुछ भरता हुआ किराया

जिधर ढलती सांझ के
साथ बन बैठता है रूखा सूखा
एक पंछी 55 वर्ष का भूखा।

पीले पत्ते और हमारे बुजुर्ग🍁

पौधों की टहनियों पर लगे पीले पत्ते
मत तोड़ो तुम….!
चंद रोज में….
खुद ब खुद झड़ जाएंगे ।

बैठा करो….,
कुछ तो अपने बुजुर्गों के पास तुम,
एक दिन खुद ही ये चुप हो जाएंगे ।

खर्चने दो…..
उन्हें बेहिसाब तुम यारों !
एक दिन…..,
सब तुम्हारे लिए छोड़ जाएंगे ।

मत टोको, मत रोको उनको बार बार
बात दुहराने पर…..,
एक दिन हमेशा के लिए वे ख़ामोश हो जायेंगे ।

इनका आशीर्वाद सर पर ले लिया करो तुम ,
वर्ना फ़िर ये तस्वीरों में ही नज़र आयेंगे ।

खिला दो उनको कुछ उनकी ही पसंद का…. ,
वरना फिर श्राद्ध में भी देखना वे खाने नहीं आयेंगे ।
पौधों की टहनियों पर लगे पीले पत्ते…
मत तोड़ो तुम…..।
चंद रोज मे….. |
खुद ब खुद झड़ जायेंगे l

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